Thursday, October 10, 2019

पुरूषार्थ

                         पुरूषार्थ

इस संसार मेंं ऐसे लोगों की संख्या आशा के प्रतिकूल है जिनका जीवन औरों की खुशियों पर निर्भर होता है।किसी के भी कष्ट को देखकर उनका मन विचलित सा हो जाता है।उनकी अन्तर्आत्मा उन्हें जगाती है, जिससे वे दुखी और मजबूर लोगों से सहानुभूति रखते हुए उनके कष्टों को दूर करने का प्रयत्न करते हैं।

ऐसे परोपकारियों का मन बड़ा ही कोमल होता है।ये बिना किसी लाभ के नि:सहाय लोगों की सेवा में डटे रहते हैं। इनके जीवन का लक्ष्य सबके बीच प्रेम का आदान- प्रदान कर और दुखियारों के दुखों को स्वयं का दुख समझकर दूर करने हेतु प्रयत्नशील रहना है। 

अपने लक्ष्य को सर्वोपरि मानकर ये अपना सर्वस्व जीवन अक्षम लोगों के कल्याण हेतु समर्पित कर देते हैं।सही माने मेंं ये पुरूषार्थी कहलाते हैं।

समाज के कुछ ऐसे लोग हैं जो मानवीय मूल आवश्यकताएँ पूर्ण करने मेंं स्वयं को असमर्थ पाते हैं। उन्हें अपनी इच्छाओं को दमन करने हेतु बाध्य होना पड़ता है।अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति से बंचित होना पड़ता है।इसका महत्वपूर्ण कारण गरीबी है।

गरीबी का मुख्य वजह आजीविका हेतु आय का शून्य होना है।गरीबी के परिणामस्वरूप भूखमरी और बीमारी उनके जीवन का अंग बन चुका है।कुछ तो इलाज के अभाव मेंं दम तोड़ देते हैं तथा उनके परिवार के शेष सदस्य बिखर कर रह जाते हैं।

कृषि आधारित कमजोर किसान भी प्रकृति की मार से विचलित होकर अपना जीवन समाप्त करने को विवश हैं।आय के ठोस स्रोत के अभाव के कारण गरीबी,भूखमरी और बीमारी के साथ जीवन जीने को मजबूर हैं।इस दूर्दशा के परिणामत: ये समाज से अलग-थलग पड़ जाते हैं।

लाचार और बेसहारा के उत्थान और कल्याण के लिए इस धरती पर अनेक महान पुरूषों का जन्म हुआ, जिनका समस्त जीवन दुखियों के दुख बाँटने और उनके सेवा मेंं बीता।ऐसे सुकर्म कर समाज मेंं उसने एक आदर्श प्रस्तुत किया है।जिससे प्रेरणा लेकर हमें उनके पद चिह्नों पर कदम बढाने हेतु अग्रसर होना चाहिए।

आज व्यस्तता के युग मेंं किसी के पास पर्याप्त समय नहीं है जो उनके कष्टों का अनुभव कर सके।इच्छाशक्ति के अभाव मेंं कुछ लोगों को उनसे तटस्थता बनाए रखने को विवश होना पड़ता है।

एकमात्र इसी कारण से इनकी स्थिति मेंं संतोषजनक परिवर्तन नहीं दिख रहा है।सहयोग के लिए उठने वाले हाथों की संख्या नगण्य है।यदि मदद करनेवालों की तादाद बढ जाए तो सार्वजनिक स्थानों एवं धार्मिक स्थलों पर इनकी उपस्थिति नदारद रहती और इनके नाम वाले शब्द, शब्दकोश से मिट जाते। तभी पुरूषार्थियों के लक्ष्यों की प्राप्ति सही माने मेंं सफल मानी जाती।

इस उद्देश्य की सफलता के लिए हमें जागरूक होना अनिवार्यता है।इस मार्ग पर एक कदम बढाने की आवश्यकता है।आज समय की यह मांग है कि सब अपनी एक-एक हाथ आगे बढाएँ और संकल्प लेंं कि मानवता के इस व्याधि का उन्मूलन कर उन्हे समाज की मुख्यधारा से जोड़कर उनके जीवन स्तर मेंं बदलाव लाया जाय।

हमें अपनी मानसिकता मेंं बदलाव कर इस गंभीर समस्या के प्रति संवेदनशील होने की आवश्यकता है।यथासंभव जितना सहयोग हम उनके लिए कर सके वह अप्रत्याशित सफलता होगी। हमें अपनी मनोवृति मेंं सकारात्मक सोच को समायोजित करने की आवश्यकता है जिससे हमें उनके दर्द का एहसास और दुख का अनुभव प्राप्त हो सके।

हमारी थोड़ी सी कोशिश से उनके जीवन मेंं ढेर सारी खुशियाँ आ सकती है।इस कदम से उन्हें "वसुधैव कुटुम्बकम"के चरितार्थ होने का बोध और अपनेपन का एहसास हो पाता।

धन्यवाद।

2 comments:

  1. प्रोत्साहित करने के लिए शुक्रिया ।

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Visarg sandhi

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